कबीर दास के दोहे अर्थ सहित



Kabir Ke Dohe in Hindi: हमारे देश में महान संत कबीर दास जी (Kabir Das Ji) को बहुत ही सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है | कबीर दास जी एक ऐसे महान संत (Sage) थे, जिन्होनें अपना सम्पूर्ण जीवन समाज में फैली कुरीतियों को मिटाने के लिए समर्पित कर दिया |  संत कबीर जी समाज में फैले जाति के भेदभाव और आडंबरों, अंधविश्वास को मिटाने के लिए दोहे के माध्यम से अपनी बात कहते थे।

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कबीर दास जी पढ़े-लिखे नहीं थे, साधु-संतों के सत्संग से उन्होंने अनेक शास्त्रों तथा धर्म के बारे में समुचित ज्ञान अर्जित किया था। चूँकि कबीर दास जी अनपढ़ थे, इसलिए वह जो कुछ भी बोलते थे, उनके शिष्य उसे लिख लेते थे | इस प्रकार कबीर जी की  तीन पुस्तके साखी,सबद और रमैनी की रचना हुई, जो आज भी हमारे लिए प्रेरणास्त्रोत है | आइये जानते है Sant Kabir ke Dohe with Meaning in Hindi.

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कबीर दास के दोहे अर्थ सहित (Kabir Das Dohe with Mean)

कबीर के दोहे इस प्रकार से है :-

1.बड़ा भया तो क्या भया, जैसे पेड़ खजूर |

पंथी को छाया नहीं फल लागे अति दूर ||

अर्थ- इस दोहे के माध्यम से कबीरदास जी का कहना है, कि खजूर का पेड़ काफी बड़ा अर्थात लम्बा होता है, परन्तु इतना लम्बा होनें के बावजूद भी वह ना ही किसी को छाया देता है और फल इतनी ऊँचाई पर लगते है कि उन्हें प्राप्त करना बहुत ही कठिन है| इसी तरह यदि आप किसी का भला नहीं कर पा रहे तो ऐसे बड़े होने से भी कोई लाभ नहीं है |



2.दुःख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय |
जो सुख में सुमिरन करे, तो दुःख काहे को होय ||

अर्थ-दुःख और सुख हमारे जीवन के दो महत्वपूर्ण पहलू है| जैसे ही किसी व्यक्ति के जीवन में दुःख की घड़ी आती है, तो वह ईश्वर को याद करनें लगते है | और जैसे ही दुःख की घड़ी निकल जाती है वैसे ही ईश्वर को भूल जाते हैं | यदि सुख में भी ईश्वर को याद करोगे तो जीवन में  कभी दुःख आएगा ही नहीं |

3.निंदक नियरे राखिए, ऑंगन कुटी छवाय,
बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।

अर्थ- आज के समय में जो हमारी निंदा अर्थात बुराई करता है, हम उसे बिलकुल भी पसंद नहीं करते है और उसे अपनें पास से हटा देते है या स्वयं ही हट जाते है | परन्तु कबीर दास जी का कहना है, कि जो हमारी निंदा करता है उसे अपनें पास ही रखना चाहिए क्योंकि उस व्यक्ति से हमें अपनी गलतियों के बारें में पता चलता है, जिसे सुधार कर हम अपनें स्वभाव को स्वच्छ और सरल बना सकते है |

4.ऐसी वाणी बोलिए मन का आप खोये |
औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होए ||

अर्थ- वर्तमान समय में अक्सर लोग ऐसी भाषा का बोलते है, जिससे लोगो के मन बहुत ही दुःख होता है | कबीर दास जी कहते हैं, कि इंसान को ऐसी भाषा बोलनी चाहिए जिसे सुनकर लोगो का मन प्रसन्नचित्त हो जाये और स्वयं को भी एक बड़े आनंद का अनुभव हो | कहनें का आशय यह है, कि कभी भी मन अहंकार की भावना नहीं होनी चाहिए, चाहे आप कितनें ही धनी क्यों न हो जाएँ |

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5.मलिन आवत देख के, कलियन कहे पुकार ।

फूले फूले चुन लिए, कलि हमारी बार ।

अर्थ- जब एक मालिन बगीचे में फूल तोडनें के लिए आती है, तब कलियाँ आपस में बातें करते हुए कहती है, किआज मालिन नें इस फूल को तोड़ लिया है अर्थात आज हम बच गये है, परन्तु कल हमारी बारी है | कहनें का आशय यह है कि आज आप जवान है और कल आप भी बूढ़े हो जायेंगे और अंत में एक दिन मिट्टी में मिल जायेंगे |    

6.तन को जोगी सब करे, मन को विरला कोय ।

सहजे सब विधि पाइए, जो मन जोगी होए ।

अर्थ- बहुत से लोग अपनें मन दूसरों के प्रति इर्ष्या रखते है, परन्तु उनके सामनें वह ऐसी बाते करते है जैसे कि वह आपके बहुत हितकारी है | कहनें का आशय यह है, कि लोग प्रतिदिन अपनें शरीर को बहुत अच्छी तरह से साफ करते है, वेशभूषा भी बहुत अच्छी पहनते है | परन्तु मन में तो आप इर्ष्या रखते है तो आपके शरीर साफ रखनें और अच्छी वेशभूषा धारण करनें का कोई लाभ नहीं है |      

7.पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय ।

ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय ।

अर्थ- लोग बहुत बड़ी-बड़ी डिग्रियां हासिल कर लेते है परन्तु उनके अन्दर दूसरों के प्रति प्यार, करुणा जैसी कोई भावना नहीं है और वह अपनें आप को पंडित या विद्वान कहते है | कबीर दास जी कहते हैं, कि जिन लोगो के अन्दर प्रेम भावना नहीं है, ऐसे लोग कितना भी पढ़ जाये वह कभी विद्वान नहीं हो सकते |      

8.आये है तो जायेंगे, राजा रंक फ़कीर ।

इक सिंहासन चढी चले, इक बंधे जंजीर ।

अर्थ-कबीर दास जी कहते हैं कि इस दुनिया में जो भी आया है उसे एक दिन अवश्य ही जाना है, चाहे वह कोई राजा हो या फ़क़ीर | कहनें का आशय यह है कि एक दिन सभी का अंत होना है | अंतिम समय में यमदूत सभी को एक ही जंजीर में बांध कर ले जायेंगे, इसलिए अपनें जीवन में कभी घमंड नहीं करना चाहिए |

संस्कृत श्लोक अर्थ सहित

9.ऊँचे कुल का जनमिया, करनी ऊँची न होय ।

सुवर्ण कलश सुरा भरा, साधू निंदा होय ।

अर्थ-कबीर दास जी कहते हैं कि आपनें कितनें भी ऊँचे कुल में जन्म लिया हो, परन्तु आपके कर्म अच्छे नहीं है, तो आपको कोई भी अच्छा नहीं कहेगा आपको गणना ऐसे लोगो में कि जाएगी, जिस प्रकार सोने के लोटे में जहर भरा हो, इसकी चारों ओर निंदा ही होती है।

10.संत ना छाडै संतई, जो कोटिक मिले असंत

चन्दन भुवंगा बैठिया, तऊ सीतलता न तजंत।

अर्थ- कबीर दास जी कहते है, कि एक सज्जन व्यक्ति को चाहे जितनें बुरे व्यक्ति या बुरी संगति के लोग मिल जाये फिर भी वह अपनें भले स्वभाव को नहीं छोड़ता | जिस प्रकार एक चन्दन के पेड़ से अनेक खतरनाक सांप लिपटे रहे है, फिर भी उस पर सर्प के जहर का कोई प्रभाव नहीं पड़ता और वह पेड़ सदेव अपनी सुगंध फैलाता रहता है |      

11.गुरु गोविंद दोनों खड़े, काके लागूं पाँय, 

बलिहारी गुरु आपनो, गोविंद दियो मिलाय ॥

अर्थ- इस दोहे के माध्यम से कबीर दास जी नें गुरु के महत्व के बारें में बताया है | कबीर दास जी कहते है यदि आपके सामनें गुरु और साक्षात् ईश्वर दोनों खड़े हो तो आप पहले किसके पैर छुएंगे अर्थात आप पहले किसे प्रणाम करेंगे ? इस पर कबीर दास जी कहते है कि आपको गुरु ने ही ईश्वर के बारें में बताया है, ईश्वर नाम का ज्ञान हमारे जीवन में गुरु कि दे न है | इसलिए एक गुरु ईश्वर से श्रेष्ठ हैं | आज यदि तुम ईश्वर के सामनें खड़े हो यह भी गुरु कि ही देन है |            

12.कबीर सो धन संचे, जो आगे को होय।
सीस चढ़ाए पोटली, ले जात न देख्यो कोय।

अर्थ-कबीर दास जी कहते है, कि आप उतना ही धन एकत्र करे जो भविष्य अर्थात आपकी वृद्धावस्था में आपके काम आये | अपनें सर पर धन की गठरी बाँध कर ले जाते तो किसी को नहीं देखा। कहनें का आशय यह है कि जितनी आवश्यकता हो उतना ही धन एकत्र करना चाहिए, लालच में पड़कर असीमित धन एकत्र करनें से कोई लाभ नहीं होगा क्योंकि जब आप इस दुनिया से जायेंगे तो एकत्र किया हुआ धन यही रह जायेगा |

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13.कबीर चन्दन के निडै नींव भी चन्दन होइ।
बूडा बंस बड़ाइता यों जिनी बूड़े कोइ ॥

अर्थ-कबीर दास जी कहते है, यदि एक चन्दन के पेड़ के पास एक नीम का पेड़ खड़ा हो, तो नीम के पेड़ से भी चन्दन कि खुशबू आने लगती है | लेकिन एक बांस का पेड़ अपनी लम्बाई के कारण एक दिन झुककर टूट जाता है | कहनें का आशय यह है कि हमेशा अच्छे प्रभाव को ग्रहण कर लेना चाहिए ना कि अपनें गर्व और अहंकार रहना चाहिए |     

14.मन के हारे हार है मन के जीते जीत ।
कहे कबीर हरि पाइए मन ही की परतीत ॥

अर्थ- हमारे जीवन में जय और पराजय का बहुत बड़ा महत्व है | इस पर कबीर दास जी कहते है जय पराजय सिर्फ मन की भावनाएं हैं | यदि एक व्यक्ति मन से निराश हो गया तो वह हार गया और यदि उसनें मन को जीत लिया तो तो वह विजेता है | ठीक इसी प्रकार  ईश्वर को भी मन के विश्वास से ही प्राप्त किया जा सकता हैं | यदि आपको ईश्वर प्राप्ति का भरोसा ही नहीं तो कैसे पाएंगे |

15.प्रेम न बाडी उपजे प्रेम न हाट बिकाई ।
राजा परजा जेहि रुचे सीस देहि ले जाई ॥

अर्थ-कबीर दास जी कहते है, कि प्रेम किसी बाज़ार में नहीं बिकता है जिसे कोई भी राजा या प्रजा बाजार से खरीद लेगा | यदि प्यार पाना चाहते हैं तो वह आत्म बलिदान से ही प्राप्त किया जा सकता है अर्थात त्याग और बलिदान के बिना प्रेम को नहीं पाया जा सकता | 

16.कबीर हमारा कोई नहीं हम काहू के नाहिं ।
पारै पहुंचे नाव ज्यौं मिलिके बिछुरी जाहिं ॥

अर्थ-कबीर दास जी कहते है, कि इस संसार में हमारा अपना कोई नहीं है और ना ही हम किसी के है | जिस प्रकार नांव के नदी पार पहुँचने पर उसमें मिलकर बैठे हुए सभी यात्री बिछुड़ जाते हैं,  वैसे ही इस जीवनरुपी संसार से हम सब मिलकर बिछुड़ने वाले हैं | कहनें का आशय यह है कि एक व्यक्ति कि मृत्यु के पश्चात हमारे सभी तरह के सम्बन्ध यहीं छूट जाते है और हम जीवनभर अपना पराया करते रहते है |

17.एकही बार परखिये ना वा बारम्बार ।
बालू तो हू किरकिरी जो छानै सौ बार॥

अर्थ- कबीर दास जी कहते है, कि यदि आपको किसी व्यक्ति को परखना है तो उसे एक हो बार में पूरी तरह से परख ले तो आपको बार- बार परखनें कि आवश्यकता नही होगी | जिस प्रकार रेत को सौ बार भी छाननें के बाद भी उसकी किरकिराहट दूर नहीं होगी | इसी प्रकार एक मूर्ख व्यक्ति को चाहे जितनी बार परखो वह अपनी मुर्खता का परिचय अवश्य दे देगा अर्थात वास वैसा ही मिलेगा जबकि एक सही व्यक्ति कि परख एक ही बार में हो जाती है |    

18.माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर,

कर का मन का डार दे, मन का मनका फेर ॥

अर्थ-कबीर दास जी कहते हैं कि लोग अपनी मन कि शांति के लिए जीवनभर हाथ में माला लेकर ईश्वर की उपासना करते रहते है इसके बावजूद भी उनका मन शांत नहीं होता | इस माला के जप करनें के बजाय यदि दो पल के लिए मन को टटौलो, उसकी सुनो,देखो तो तुम्हे अपने आप ही शांति महसूस होने लगेगी |  

19.सब धरती काजग करू, लेखनी सब वनराज |

सात समुद्र की मसि करूँ, गुरु गुण लिखा न जाए ||

अर्थ- कबीर दास जी नें इस दोहे में गुरु पर लिखनें के बारें में बताया है | कबीर जी कहते है कि यदि मै इस पृथ्वी के बराबर एक कागज बना लूँ और इस संसार के सभी पेड़ों कि कलम बना लूँ  और सातों समुद्रों के बराबर स्याही बना लूँ तो भी गुरु के गुणों के बारें में लिखना संभव नहीं है |  

20.बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय |

जो मन देखा आपना, मुझ से बुरा न कोय ||

अर्थ-कबीर दास जी ने अपने इस दोहे में कहा है, कि जब मैं दुनिया में दूसरों की बुराई ढूंढने निकला तो मुझे इस संसार में कोई बुरा भी बुरा व्यक्ति नही मिला |  फिर मैंने अपने दिल में झांककर देखा, तो मुझे पता चला कि इस दुनिया में मुझसे बुरा कोई है ही नहीं, मैं ही सबसे बुरा प्राणी हूँ। कहनें का आशय यह है, कि इस दुनिया किसी भी व्यक्ति के अन्दर की बुराइयों को ढूंढने से पहले अपनें अन्दर की की बुराइयों कोढूंढो और उन्हें समाप्त कर दो| यदि तुम ऐसा करनें में सफल हो जाते हो तो तो तुम्हें इस पूरे संसार का कोई भी प्राणी बुरा नहीं लगेगा |

21.तिनका कबहुँ ना निंदये, जो पाँव तले होय ।
कबहुँ उड़ आँखो पड़े, पीर घानेरी होय ।

अर्थ- इस दोहे में कबीर दास जी नें कहा है कि यदि एक तिनका आपके पैर के नीचे आ जाये तो उसकी निंदा ना करे, क्योंकि यदि यही तिनका हवा में उड़कर आँखों में चला जाता है तो बहुत ही पीड़ा पहुचाता है | कहनें का आशय यह है, कि किसी भी निर्धन, कमजोर व्यक्ति की कभी निंदा नहीं करना चाहिए |    

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